राजेंद्र
यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा
दलित साहित्य कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सभा की
रिपोर्ट
दिनांक
-8/11/13
नयी दिल्ली, 8 नवंबर : प्रसिद्ध कथाकार और हिंदी
मासिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव की स्मृति में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा दलित साहित्य कला केंद्र द्वारा एक सभा का आयोजन किया
गया। शुरू में प्रलेस के महासचिव अली जावेद ने अपने संगठन की ओर से राजेंद्र यादव
को श्रद्धांजलि दी, उसके बाद संचालन जलेस के महासचिव चंचल चौहान ने किया। इस अवसर
पर डॉ निर्मला जैन ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि राजेंद्र यादव ने अपने
लेखन के माध्यम से चुप लोगों को जुबान दी, लोगों के सवालों को ओझल नहीं होने दिया ठीक
उसी तरह जैसे वे खुद को लोगों की निगाह से ओझल नहीं होने देते थे, हंस के
माध्यम से कई नये रचनाकारों को स्थापित किया, वे और उनका हंस नहीं होता तों
जितनी मजबूती के साथ स्त्री, दलित और साम्प्रदायिकता के सवाल दर्ज हुए वैसा न हो
पाता, अपने इस काम में वे एक प्रतिबद्ध सिपाही कि तरह डेट रहे। रामशरण जोशी ने कहा
कि यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा है कि राजेंद्र यादव हमारे बीच नहीं रहे, वे कल
आज और कल तीनो परिप्रेक्ष्य में महत्वपूपर्ण व्यक्ति थे, वे प्रगतिशील व्यक्ति थे
लेकिन कठमुल्लापन उनमे नहीं था, उनका जाना हमारे वर्तमान राजनीतिक, सांप्रदायिक
सवालों के संदर्भ में एक बड़ी ठेस है, वे एक ऐसे लेखक पत्रकार रहे जिन्होंने हाशिये
के सवालों को केन्द्र में रखा, वे सच्चे अर्थो में एक पब्लिक इंटलेक्चुअल थे।
अशोक चक्रधर ने उन्हें याद करते हुए कहा कि वे
जिन्दा बातें करने बाले व्यक्तियों में से एक थे, वे एक पारदर्शी व्यक्ति थे, वे
असहमति, अपवाद और अपनी आलोचना को भी स्वीकार करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल के
अनुसार पिछले तीस साल का भारत का इतिहास भारत की कल्पना का इतिहास रहा है, हिंदी
में इस पर राजेंद्र यादव ने अपनी हंस पत्रिका के माध्यम सबसे ज्यादा विचार
किया और उसे एक रूप देने कि कोशिश की, उनसे जुड़ कर हर व्यक्ति मित्रता महसूस करता
था। डॉ: विश्वनाथ त्रिपाठी ने उन्हें
श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि राजेद्र यादव के नेतृत्व में हंस अपने आप में एक
आंदोलन था, उन्होंने उसके नाम को गरिमा और सार्थकता प्रदान की, आजादी के बाद के
दौर में इस तरह का एक्टिविस्ट संपादक कोई नहीं रहा, वे एक निरंतर प्रतिरोधी स्वर के
व्यक्तित्व थे, वे आदमी को देवता बनाने के विरोधी थे, उन्होंने एक नया सौंदर्यबोध
विकसित किया जो भारतीय मानस का अंग बन गया है। डॉ: मैनेजर पाण्डेय ने कहा कि राजेंद्र
यादव में व्यंग और विरोध की प्रवृति अधिक थी, वे एक जिंदादिल व्यक्ति थे।
विश्वप्रसिद्ध लेखिका तसलीमा नसरीन सभा में मौजूद थीं, उन्होंने राजेंद्र जी की
तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित की, उनकी लिखित श्रद्धांजलि भरत तिवारी ने पढ़ी। उनके
अनुसार राजेद्र जी व्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक जिन्दा मिसाल थे।
उन्होंने कहा कि वे मुझे एक पिता और मित्र की तरह लगते थे, एक प्रतिबंधित और संकट
में फंसी लेखिका को उन्होंने हंस का मंच दिया, यह मेरे लिए सम्मान की बात
है। सजीव कुमार के अनुसार उनमे लोकतंत्रात्मक होने की उच्चतम डिग्री मौजूद थी। वे
वर्तमान हिंदी समाज के एकमात्र लेखक रहे जिन्हें हिंदी के औपचारिक और अनौपचारिक
पाठक अपनी तरह से याद करते हैं, उनके बारे में सबकी अपनी एक राय है। अपूर्वानंद के
अनुसार वे एक ‘लिसनिंग पोस्ट’ की तरह थे जिनसे नौजवान पीढ़ी अपनी बात कहती थी, वे
पहले व्यक्ति थे जो ‘पॉलिटिक्स ऑफ रिकॉग्निशन’ की बात करते थे।
दलित लेखक कला
केन्द्र की ओर से दिलीप कटेरिया ने श्रद्धांजलि प्रदान की और कहा कि उन्होंने
साहित्य में नयी परंपरा की नींव रखी, दलित और स्त्री लेखन को जमीन दी, उन्होंने
जिस साहित्य परंपरा की नींव रखी हम उस आगे बढ़ायेंगे। सभा की अध्यक्षता करते हुए
मैत्रेयी पुष्पा ने राजेंद्र यादव के साथ अपने लंबे समय के लेखकीय संबंध तथा
विवादों, प्रतिवादों को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। उनके अनुसार राजेंद्र यादव
ने करवाचौथ करती औरतों तथा स्त्री लेखिकाओं को जागरूक किया, विचार और लेखन के लिए
प्रेरित किया, हम औरतों को उन्होंने बागी बना दिया, अनुभव हमारे थे रस्ते उन्होंने
बताये कि किस तरफ जाना है। अंत में सुधीर सुमन ने शोक प्रस्ताव पेश किया, एक मिनट
का मौन रखकर लेखकों ने अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
प्रस्तुति : अरविन्द मिश्र
No comments:
Post a Comment