Thursday, October 28, 2010

प्रेस विज्ञप्ति

बाबरी मस्जिद स्थल के बारे में लखनऊ बेंच के फ़ैसले पर
जलेस, प्रलेस और जसम का साझा बयान

रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला इस देश के हर इंसाफ़पसंद नागरिक के लिए दुख और चिंता का सबब है। इस फ़ैसले में न सिर्फ तथ्यों, सबूतों और समुचित न्यायिक प्रक्रिया की उपेक्षा हुई है, बल्कि धार्मिक आस्था को अदालती मान्यता देते हुए एक ऐसी नज़ीर पेश की गयी है जो भविष्य के लिए भी बेहद ख़तरनाक है। इस बात का कोई साक्ष्य न होते हुए भी, कि विवादित स्थल को हिंदू आबादी बहुत पहले से भगवान श्रीराम की जन्मभूमि मानती आयी है, फ़ैसले में हिंदुओं की आस्था को एक प्रमुख आधार बनाया गया है। अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘पुरुषसूक्त’ है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है? अदालत इस मामले में भारतीय संविधान से निर्देशित होगी या आस्थाओं से? तब स्त्री के अधिकारों-कर्तव्यों से संबंधित परम्परागत मान्यताओं के साथ न्यायपालिका क्या सलूक करेगी? हमारी अदालतें सती प्रथा को हिंदू आस्था के साथ जोड़ कर देखेंगी या संविधानप्रदत्त अधिकारों की रोशनी में उस पर फ़ैसला देंगी? कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था को विवादित स्थल संबंधी अपने फ़ैसले का निर्णायक
आधार बना कर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने ‘मनुस्मृति’ और ‘पुरुषसूक्त’ समेत हिंदू आस्था के सभी स्रोतों को एक तरह की वैधता प्रदान की है, जिनके खि़लाफ़ संघर्ष आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना के निर्माण का एक अनिवार्य अंग रहा है और हमारे देश का संविधान उसी आधुनिक लोकतांत्रिक चेतना की मूर्त अभिव्यक्ति है। इसलिए आस्था को ज़मीन की मिल्कियत तय करने का एक आधार बनाना संवैधानिक उसूलों के एकदम खि़लाफ़ है और इसमें आने वाले समय के लिए ख़तरनाक संदेश निहित हैं। ‘न्यायालय ने भी आस्था का अनुमोदन किया है’, ऐसा कहने वाले आर एस एस जैसे फासीवादी सांप्रदायिक संगठन की दूरदर्शी प्रसन्नता समझी जा सकती है!
यह भी दुखद और चिंताजनक है कि विशेष खंडपीठ ने ए.एस.आई. की अत्यंत विवादास्पद रिपोर्ट के आधार पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्मस्थल होने की बात को दो तिहाई बहुमत से मान्यता दी है। इस रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद वाली जगह पर ‘स्तंभ आधारों’ के होने का दावा किया गया है, जिसे कई पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने सिरे से ख़ारिज किया है। यही नहीं, ए.एस.आई. की ही एक अन्य खुदाई रिपोर्ट में उस जगह पर सुर्खी और चूने के इस्तेमाल तथा जानवरों की हड्डियों जैसे पुरावशेषों के मिलने की बात कही गयी है, जो न सिर्फ दीर्घकालीन मुस्लिम उपस्थिति का प्रमाण है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि वहां कभी किसी मंदिर का अस्तित्व नहीं था। निस्संदेह, ए.एस.आई. के ही प्रतिसाक्ष्यों की ओर से आंखें मूंद कर और एक ऐसी रिपोर्ट परं पूरा यकीन कर जिसे उस अनुशासन के चोटी के विद्वान झूठ का पुलिंदा बताते हैं, इस फ़ैसले में अपेक्षित पारदर्शिता एवं तटस्थता का परिचय नहीं दिया गया है।
हिंदू आस्था और विवादास्पद पुरातात्विक सर्वेक्षण के हवाले से यह फ़ैसला प्रकारांतर से उन दो कार्रवाइयों को वैधता भी प्रदान करता है जिनकी दो-टूक शब्दों में निंदा की जानी चाहिए थी। ये दो कार्रवाइयां हैं, 1949 में ताला तोड़ कर षड्यंत्रपूर्वक रामलला की मूर्ति का गुंबद के नीचे स्थापित किया जाना तथा 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना। आश्चर्य नहीं कि 1992 में साम्प्रदायिक ताक़तों ने जिस तरह कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं और 500 साल पुरानी एक ऐतिहासिक इमारत को न सिर्फ धूल में मिला दिया, बल्कि इस देश के आम भोलेभाले नागरिकों को दंगे की आग में भी झोंक दिया, उसके ऊपर यह फ़ैसला मौन है। इस फ़ैसले का निहितार्थ यह है कि 1949 में जिस जगह पर जबरन रामलला की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया, वह जायज़ तौर पर रामलला की ही ज़मीन थी और है, और 1992 में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों द्वारा संगठित एक उन्मादी भीड़ ने जिस मस्जिद को धूल में मिला दिया, उसका ढहाया जाना उस स्थल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए ज़रूरी था! हमारे समाज के आधुनिक विकास के लिए अंधविश्वास और रूढि़वादिता बड़े रोड़े हैं जिनका उन्मूलन करने के बजाय हमारी न्यायपालिका उन्हीं अंधविश्वासों और रूढि़वादिता को बढ़ावा दे तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!
लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिक सोच में यक़ीन करने वाले हम लेखक-संस्कृतिकर्मी, विशेष खंडपीठ के इस फ़ैसले को भारत के संवैधानिक मूल्यों पर एक आघात मानते हैं। हम मानते हैं कि अल्पसंख्यकों के भीतर कमतरी और असुरक्षा की भावना को बढ़ाने वाले तथा साम्प्रदायिक ताक़तों का मनोबल ऊंचा करने वाले ऐसे फ़ैसले को, अदालत के सम्मान के नाम पर बहस के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। इसे व्यापक एवं सार्वजनिक बहस का विषय बनाना आज जनवाद तथा धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए सबसे ज़रूरी क़दम है।

हस्ताक्षरकर्ता

मुरलीमनोहरप्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
कमला प्रसाद, महासचिव प्र ले स
प्रणयकृष्ण, महासचिव जसम

Monday, August 23, 2010

प्रेस विज्ञप्ति

New Delhi
दिनांक 20-8-2010

‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त 2010 के अंक में प्रकाशित विभूतिनारायण राय के साक्षात्कार में कुछ महिला लेखकों के बारे में कहे अशोभनीय शब्दों को लेकर उठे विवाद के प्रसंग में अपने हस्तक्षेप को आगे बढ़ाते हुए जनवादी लेखक संघ ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की विजि़टर, माननीय राष्ट्रपति महोदया के नाम एवं ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी व न्यास के अन्य सदस्यों के नाम पत्र लिखे हैं। माननीय राष्ट्रपति महोदया से ज.ले.स. ने यह अनुरोध किया है कि कुलपति की इस ग़ैरजिम्मेदार एवं अशिष्ट बयानबाज़ी का संज्ञान लेते हुए अनुशासनात्मक कार्रवाई करें और इस प्रकार स्त्री जाति के इस अपमान का प्रतिकार करें।
भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासियों के नाम लिखे गए पत्र में ‘नया ज्ञानोदय’ के सम्पादक की सम्पादकीय नीति और रुझान को सवालिया घेरे में खड़ा किया गया है, संस्थान में उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर उनके बने रहने को संस्थान की गरिमा एवं प्रतिष्ठा के प्रतिकूल बताया गया है और यह अनुरोध किया गया है कि न्यास की 23 अगस्त को होने वाली बैठक में वे हिंदी लेखक और पाठक समुदाय की जनतांत्रिक मांग का सम्मान करेंं।
पत्रों की प्रतिलिपि संलग्न है।

--M.M.P. Singh, Gen. Secretary ; Chanchal Chauhan, Gen.Secretary


प्रेस विज्ञप्ति

New Delhi
दिनांक 20-8-2010

प्रति
श्रीमती प्रतिभा पाटिल माननीया राष्ट्रपति
विजि़टर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
राष्ट्रपति भवन
नयी दिल्ली।
माननीया राष्ट्रपति महोदया,
जनवादी लेखक संघ आपका ध्यान महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय के उस साक्षात्कार की ओर आकर्षित करना चाहता है जो ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका के अगस्त, 2010 अंक में प्रकाशित हुआ है। इस साक्षात्कार में कुलपति श्री राय ने एक प्रश्न के उत्तर में (हिंदी की) लेखिकाओं के लिए अश्लील एवं अत्यंत अपमानजनक शब्द ‘छिनाल’ का प्रयोग किया है। यही नहीं, उन्होंने अपने इस साक्षात्कार में एक लेखिका विशेष (नाम नहीं दिया गया है) की हाल ही में प्रकाशित आत्मकथात्मक पुस्तक के लिए ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ शीर्षक सुझा कर उपर्युक्त शब्द के आशय की पुन: पुष्टि की है। स्त्रियों के बारे में श्री राय की ये अशिष्ट, अश्लील और अपमानजनक टिप्पणियां, निस्संदेह, अनजाने में नहीं, बल्कि सोच-समझ कर की गयी टिप्पणियां हैं और ये उनके वास्तविक विचारों तथा इरादों की अभिव्यक्ति हैं।
जैसा कि स्वाभाविक था, हिंदी के पाठकों और लेखकों के बीच इस साक्षात्कार को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कई लेखकों, लेखिकाओं तथा जनवादी लेखक संघ समेत अनेक लेखक-संगठनों ने इस साक्षात्कार की भत्र्सना करते हुए श्री विभूति नारायण राय से तत्काल क्षमा-याचना की मांग की और सरकार से यह दरख्वास्त की कि कुलपति महोदय के खि़लाफ़ अविलंब अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाये।
अफ़सोसनाक यह है कि कुलपति श्री राय इस व्यापक आक्रोश को पूरी हिकारत के साथ दरकिनार करते हुए विभिन्न अख़बारों में और टी.वी. चैनलों पर अपने शब्दों की व्याख्या करते हुए उसी विचार को सही ठहराते रहे और ऐसा करते हुए उन्होंने स्त्री जाति को और अधिक अपमानित किया। यहां तक कि उन्होंने प्रेमचंद जैसे महान लेखक को भी बेबुनियाद अपने बचाव में घसीटते हुए कहा कि इस शब्द का प्रयोग मुंशी प्रेमचंद ने भी सौ बार किया है, जबकि प्रेमचंद साहित्य के विशेषज्ञों के अनुसार इसमें कोई सच्चाई नहीं।
इस संदर्भ में हम दो और तथ्यों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। भारतीय दंड संहिता (1987) के अंतर्गत ‘स्त्री का अश्लील चित्रण’ (indecent representation of woman) एक दंडनीय अपराध है। इस संहिता के सेक्शन 509 के अनुसार, यदि सार्वजनिक जीवन में शब्दों के द्वारा भी स्त्री की गरिमा को नुक़सान पहुंचाया जाता है, तो भी वह दंडनीय अपराध है। यहां उच्चतम न्यायालय के विशाखा फ़ैसले का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा, जहां माननीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संविधान की धारा 14, 15(1), 19(1)(g) और 21 में स्त्री के समान अधिकारों और उसकी गरिमा की रक्षा के लिए किये गये प्रावधानों के तहत ही सार्वजनिक एवं निजी, दोनों तरह के कार्यस्थलों पर स्त्रियों को यौन-उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने तथा अपराधियों को दंडित करने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये हैं। इन दिशा-निर्देशों को राष्ट्रीय महिला आयोग ने सन् 2006 में आवश्यक कार्रवाई हेतु सभी विश्वविद्यालयों को जारी किया था। इसके अनुसार किसी भी सार्वजनिक और निजी संस्थान के अधिकारी का यह दायित्व है कि वह अपने संस्थान में स्त्रियों की यौन-उत्पीड़न से सुरक्षा सुनिश्चित करे और यदि कोई ऐसा अपराध करता है तो ऐसे व्यक्ति के खि़लाफ़ तत्काल अनुशासनात्मक कार्रवाई करे। यदि अधिकारी ऐसा नहीं करता है तो उस फ़ैसले में उसे दंडित करने की बात साफ़ तौर पर कही गयी है। यौन-उत्पीड़न के अंतर्गत शारीरिक चेष्टाओं के साथ-साथ मौखिक, लिखित एवं सांकेतिक अपमानजनक अभिव्यक्तियों को भी समान अपराध माना गया है।
संविधान की उपर्युक्त धाराओं एवं प्रावधानों के मद्देनज़र यह स्पष्ट है कि श्री विभूति नारायण राय, जो कि वर्तमान में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, उक्त साक्षात्कार में दिये गये अपने बयानों के चलते इस उच्च पद पर बने रहने की पात्रता खो चुके हैं। जिस व्यक्ति पर अपने संस्थान में शिक्षिकाओं, छात्राओं और महिला कर्मचारियों को यौन-उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने का दायित्व है, वही स्त्री जाति के प्रति अशिष्ट एवं अश्लील शब्दों का प्रयोग कर रहा है। ऐसे में इतनी गंभीर जि़म्मेदारी उस पर कैसे छोड़ी जा सकती है!
जनवादी लेखक संघ यह मानता है कि ऐसी अशोभनीय टिप्पणियां वस्तुत: स्त्री-सशक्तिकरण की निरंतर जारी प्रक्रिया पर चोट करने वाली पुरुषवादी मानसिकता की अभिव्यक्ति हैं जिसमें स्पष्ट रूप से संविधान के प्रावधानों और उनमें निहित भावनाओं की अवहेलना झलक रही है। पिछले पंद्रह-बीस वर्षों मे स्त्रियों एवं दलितों के लेखन का अभूतपूर्व उभार हिंदी में दिखायी पड़ा है। यह सामाजिक स्तर पर उनके सशक्तिकरण का एक ज्वलंत प्रमाण है। इसे बल पहुंचाने के बजाय कुलपति श्री विभूति नारायण राय अपनी रूढ़ पितृसत्तात्मक मानसिकता की बौखटाहट में असंवैधानिक टिप्पणियां कर रहे हैं।
चूंकि आप महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की विजि़टर हैं, इसलिए इस ज्ञापन के माध्यम से जनवादी लेखक संघ आपसे यह मांग करता है कि आप कुलपति श्री विभूति नारायण राय पर अविलंब अनुशासनात्मक कार्रवाई करें। आप भारत की पहली महिला राष्ट्रपति हैं। यह हम सबके लिए गौरव की बात है कि देश के सर्वोच्च पद को एक महिला सुशोभित कर रही हैं। इसलिए आपसे यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि आप इस संबंध में ठोस कार्रवाई करके स्त्री जाति के इस अपमान का प्रतिकार करेंगी।
धन्यवाद सहित,

--M.M.P. Singh, Gen. Secretary ; Chanchal Chauhan, Gen.Secretary


प्रेस विज्ञप्ति

New Delhi
दिनांक 20-8-2010

प्रति
प्रबंध न्यासी
भारतीय ज्ञानपीठ
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड
नयी दिल्ली-110003
महोदय,
जनवादी लेखक संघ पहले भी प्रेस-विज्ञप्ति के माध्यम से ‘नया ज्ञानोदय’ के ‘बेवफ़ाई सुपर विशेषांक-2’ के संबंध में अपनी राय को सार्वजनिक कर चुका है और यह मांग कर चुका है कि भारतीय ज्ञानपीठ ‘नया ज्ञानोदय’ के ऐसे ग़ैरजि़म्मेदार संपादक के खिलाफ़ कार्रवाई करे (प्रति संलग्न)। श्री कालिया के ग़ैरजि़म्मेदाराना रवैये, अश्लील शब्द-प्रयोगों द्वारा स्त्री जाति का अपमान करनेवाले साक्षात्कार को संपादकीय में महिमामंडित करने के प्रयासों तथा ‘बेवफ़ाई’ जैसी धारणा पर एकाग्र अंक की परिकल्पना करने वाली उनकी संपादकीय नीति को देखते हुए अनेक रचनाकारों ने बार-बार आपके सामने यह मांग रखी है। इनके उत्तर में आपके न्यास ने यह दावा किया है कि फ़ौरी कार्रवाई के तहत उक्त विवादित अंक को बाज़ार से वापस मंगा लिया गया है और आवश्यक संशोधन-सुधार के बाद दुबारा बाज़ार में लाया गया है।
इस संबंध में हम कुछ बातों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं।
1. न्यास के इस दावे के बावजूद पत्रिकाओं के स्टॉल्स पर न सिर्फ ‘नया ज्ञानोदय’ की असंशोधित प्रतियां मौजूद हैं, बल्कि - विक्रेताओं की मानें तो - लगातार पहुंच रही हैं।
2. मामला महज़ भूल-सुधार का नहीं, बल्कि जवाबदेही तय करने का है। जिस व्यक्ति की संपादकीय नीति ऐसी अशिष्ट एवं अश्लील टिप्पणियों को उछालने तथा ‘बेबाक’ कह कर महिमामंडित करने की रही है, उसके संबंध में कोई स्पष्ट निर्णय लिये बग़ैर न्यास अपने नेक इरादों का परिचय नहीं दे सकता। स्मरणीय है कि श्री कालिया पहले भी ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से एकाधिक लेखिकाओं के साथ ऐसा अपमानजनक बरताव कर चुके हैं जिसे किसी भी कसौटी पर उचित नहीं ठहराया जा सकता।
3. श्री कालिया के अधीन ‘नया ज्ञानोदय’ में कार्यरत एकाधिक युवा लेखकों ने जिस तरह उनके पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चलाया है, वह स्पष्ट रूप से श्री कालिया द्वारा अपनी कार्यालयी हैसियत के दुरुपयोग का एक उदाहरण है। साथ ही, वह इस बात का सबूत है कि वे अपने कृत्य पर शर्मिंदा होने के बजाय उसका औचित्य सिद्ध करने में जुटे हुए हैं। ऐसे में कोई हैरत नहीं कि वे अपनी उक्त संपादकीय नीति पर क़ायम रहें और ऐसे कामों को अंजाम देते रहें जो भारतीय ज्ञानपीठ की गरिमा के अनुरूप नहीं हों।
महोदय, इन बिंदुओं के मद्देनज़र हमें इस बात में संदेह है कि आपके संस्थान के उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर श्री रवींद्र कालिया के बने रहने से संस्थान की प्रतिष्ठा एवं गरिमा सुरक्षित रह पायेगी। हम आपसे यह अपेक्षा रखते हैं कि न्यास की आगामी बैठक, जो 23 अगस्त 2010 के लिए तय है, में आप न्यायोचित निर्णय लेकर हिंदी के लेखक एवं पाठक समुदाय की जनतांत्रिक मांग का सम्मान करेंगे।
हम उम्मीद करते हैं कि न्यास की बैठक में आप इस पत्र को विचारार्थ प्रस्तुत करते हुए इसकी प्रतियां सभी न्यासियों को मुहैया करायेंगे।

--M.M.P. Singh, Gen. Secretary ; Chanchal Chauhan, Gen.Secretary

Monday, August 2, 2010

प्रेस विज्ञप्ति

New Delhi
दिनांक 2–8–2010

जनवादी लेखक संघ श्री विभूतिनारायण राय द्वारा ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका (अगस्त 2010 अंक) में दिये उस साक्षात्कार की घोर निंदा करता है जिसमें उन्होंने हिंदी लेखिकाओं के प्रति अपमानजनक और लांछनापूर्ण शब्दों के प्रयोग से अपनी विकृत और कुत्सित मानसिकता का इजहार किया है। इसके साथ ही हम नया ज्ञानोदय के संपादक की भी, इस तरह के महिला विरोधी अभियान चलाने के गैरजिम्मेदाराना कदम के लिए, भत्र्सना करते हैं। छद्म नैतिकता के इन पहरेदारों ने प्रत्यक्षरूप से लेखक और लेखिकाओं के आत्मसम्मान और उनके लेखकीय अधिकार पर कुठाराघात द्वारा अपनी तानाशाही सोच का परिचय दिया है।

जनवादी लेखक संघ की यह मांग है कि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री केंद्रीय विश्वविद्यालय के एक कुलपति के इस आचरण का नोटिस ले और अविलंब अनुशासनात्मक कार्रवाई करे क्योंकि इस आचरण से उन्होंने महात्मा गांधी के नाम से स्थापित अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की छवि और गरिमा को क्षति पहुंचायी है।
जनवादी लेखक संघ भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास से भी मांग करता है कि वह भी ‘नया ज्ञानोदय’ के ऐसे गैरजिम्मेदार संपादक के खिलाफ कार्रवाई करे और विभूतिनारायणराय को ज्ञानपीठ पुरस्कार के निर्णायक मंडल से अलग करे।
जनवादी लेखक संघ यह भी मांग करता है कि लेखक और लोकतांत्रिक समाज से विभूतिनारायण राय और नया ज्ञानादय के संपादक इस निंदनीय आचरण के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगें।


--M.M.P. Singh, Gen. Secretary ; Chanchal Chauhan, Gen.Secretary

Monday, July 12, 2010

नया पथ का ताजा अंक


नया पथ अप्रैल-जून 2010 का अंक छपकर वितरित हो रहा है। इस अंक की सामग्री का विवरण इस प्रकार है:
अनुक्रम


संपादकीय : जनता के नाम पर जनता के विरुद्ध
जन्म शताब्दी पर विशेष
हैरियट बीचर स्टो की दूसरी शतवार्षिकी पर
दासप्रथा और रंगभेद के विरुद्ध खड़ी एक अमेरिकी महिला : कांतिमोहन
टाम काका की कुटिया : एक अंश
केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती पर
प्रकृति और प्रगतिशीलता के कवि केदार : वैभव सिंह
नागार्जुन की जन्म शती पर
इधर देखो इन घुच्ची आंखों में : बोधिसत्व
विज्ञान
तलाश ब्रह्मांड के अतीत की : धीरंजन मालवे
ज्वलंत प्रश्न
अरुंधती राय और उनका क्रांति का कैरीकेचर : राजेंद्र शर्मा
कहानी
डील : सनतकुमार
पंखा : बिक्रम सिंह
मज़बाह की भेड़ें : खुर्शीद अकरम
पुनर्मूल्यांकन
जैनेंद्र कुमार के उपन्यास और स्त्री-अस्मिता का संघर्ष :
जवरीमल्ल पारख
मंटो की कहानियों में अश्लीलता का मुद्दा :
शिवानी चोपड़ा
कविताएं
मां जैसी वह औरत : सुरेश सेन निशांत
पहाड़ों के पीछे की हंसी : मनीषा जैन
क्या मां देशद्रोही है? : शिवदत्ता बावलकर
दो कविताएं : कुलदीप शर्मा
कविता
कोई नहीं जानता
गज़ल :
अली बाकर ज़ैदी
दो कविताएं : युगल गजेंद्र
लुटेरे (1)
लुटेरे (2)
पुस्तक धरोहर
अमेरिकी इतिहास एक अलग आइने में : शशिभूषण उपाध्याय
वैज्ञानिक दृष्टि और रहस्यवाद का द्वंद्व : देवीप्रसाद मौर्य
जनता का इतिहास, जनता के नज़रिये से : सलिल मिश्र
कला और सिनेमा
अब दिल्ली दूर नहीं : मिहिर पांड्या
सुनील जाना का श्वेत श्याम संसार : राम रहमान
स्मृति शेष
लोकरंग की आंच में पकाया हबीब ने अपना रंगलोक : सुभाष चंद्र
कैलोरा गांव की वह रौशनी...(डा. कुंवरपाल सिंह को याद करते हुए) : प्रदीप सक्सेना
बदलते यथार्थ के संवेगों का साधक : मार्कंडेय : अरुण माहेश्वरी
आन बान शान वाले मुहम्मद हसन : ज़ुबैर रज़वी
डॉ. मुहम्मद हसन से एक यादगार बातचीत : वकार सिद्दीकी
आलोचना विमर्श
मुक्ति और आलोचना
प्रमीला के पी
अर्चना वर्मा
अनामिका
पुस्तक समीक्षा
मुन्नी मोबाइल उर्फ हमारे समय का नरक गुलज़ार : धर्मेंद्र सुशांत
अग्नि में तपकर निकले कुंदन की कहानी : राकेश कुमार सिंह
शिलाओं से शिराओं तक : विपिन चौधरी
व्यंग्य
आज़ादी की तीसरी लड़ाई : राजेंद्र शर्मा