Sunday, November 13, 2011

श्रीलाल शुक्ल श्रद्धांजलि सभा

दिनांक 8.11.2011 को दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा राजकमल प्रकाशन के संयुक्त तत्वावधान में श्रीलाल शुक्ल को याद करने के लिए एक सभा आयोजित हुई। सौ से अधिक की संख्या में शहर के महत्वपूर्ण लेखकों एवं संस्कृतिकर्मियों ने इस सभा में भागीदारी की और लगभग पच्चीस लोगों ने पांच से दस मिनट के अपने-अपने वक्तव्य में श्रीलाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की ख़ासियतों को रेखांकित किया। बोलने वालों में नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, कृष्ण कल्पित, मंगलेश डबराल, मृदुला गर्ग, पुरुषोत्तम अग्रवाल, संतोष भारतीय, प्रेम जनमेजय, ज़ुबैर रज़वी, राजेंद्र यादव, भगवान सिंह, शेरजंग गर्ग, रेवती रमण, अली जावेद, दुर्गा प्रसाद गुप्त, अशोक माहेश्वरी, कुंवर नारायण , मदन कश्यप, देवशंकर नवीन, हिमांशु जोशी, भारत भारद्वाज, प्रेमपाल शर्मा, रेखा अवस्थी और आशुतोष कुमार शामिल थे। सभा का संचालन करते हुए मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने भी अपनी बातें रखीं।
नामवर सिंह ने कहा कि श्रीलाल जी किसी भी लेखक संगठन के सदस्य नहीं थे, इसके बावजूद लेखक संगठनों ने उन पर कार्यक्रम किया, यह बात ग़ौर करने की है। वामपंथी लेखक संगठनों को इसी तरह संकीर्णताओं से मुक्त होकर काम करना चाहिए, जैसा कि खुद श्रीलाल जी का व्यक्तित्व था। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने बताया कि उनके रचनात्मक साहित्य और उसमें भी ‘रागदरबारी’ की चर्चा करके लोग रह जाते हैं, जबकि इस बात का भी उल्लेख होना चाहिए कि वे संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और फ्रेंच भाषाओं के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। विश्व साहित्य के नवीनतम रुझानों से वे वाकि़फ़ रहते थे। विश्वनाथ त्रिपाठी ने श्रीलाल जी को व्यंग्य उपन्यास की विधा की शुरुआत करने का श्रेय दिया तो भगवान सिंह ने ‘मकान’ को उनकी सर्वोत्कृष्ट रचना बताया। राजेंद्र यादव ने श्रीलाल जी को याद करते हुए इस चीज़ पर टिप्पणी करना ज़रूरी समझा कि पुरस्कार उस उम्र में मिलने चाहिए जब लेखक को अधिक लिखने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत हो। सामान्यत: बड़े पुरस्कार ऐसी उम्र में आकर मिलते हैं जब उसकी राशि या तो अस्पताल के लिए या अंतिम क्रियाकर्म के लिए इस्तेमाल की जाती है। उन्होंने अण्णा हज़ारे के आंदोलन के संदर्भ में ‘रागदरबारी’ को याद किये जाने पर बल दिया। रेखा अवस्थी ने कहा कि बाबा नागार्जुन और श्रीलाल शुक्ल को एक साथ रख कर देखा जाना चाहिए। उन्होंने इस चीज़ पर अफ़सोस जताया कि 2001 में प्रकाशित ‘रागविराग’ अपनी विषयवस्तु और ट्रीटमेंट में जितना प्रासंगिक और अद्भुत है, उसके अनुरूप उस पर चर्चा नहीं हुई। अन्य सभी वक्ताओं ने भी अपने-अपने वक्तव्य में महत्वपूर्ण बिंदुओं को उभारा।
दो घंटे चली इस श्रद्धांजलि सभा का समापन श्रीलाल जी के प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने वाले प्रस्ताव और दो मिनट के मौन के साथ हुई।

Friday, October 28, 2011

श्रीलाल शुक्ल के निधन पर

प्रेस विज्ञप्ति

दिनांक 28-10-२०११


जनवादी लेखक संघ हिंदी के मूर्धन्य कथाकार श्रीलाल शुक्ल के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। वे पिछले काफ़ी अरसे से बीमार थे।
श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर 1925 को लखनउ के अतरौली गांव में हुआ था। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे, उन्होंने 1949 में राज्य सिविल सेवा में आये और सरकार के अनेक उच्च पदों पर काम किया और 1983 में वे सेवानिवृत्त हुए। श्रीलाल शुक्ल का पहला उपन्यास, 'सूनी घाटी का सूरज', 1957 में प्रकाशित हुआ था, उसके बाद 'अंगद का पांव'(1958), और फिर उसके दस साल बाद 'राग दरबारी' (1968) प्रकाशित हुआ जिसने हिंदी कथासाहित्य में हलचल मचा दी क्योंकि उसमें चित्रित यथार्थ एक दम नये नज़रिये से लैस था, जो पुरानी मान्यता, 'अहा ग्राम्यजीवन भी क्या है' से हट कर समाज की कड़वी सचाई हमारे सामने रख देता है। इसी उपन्यास पर उन्हें 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उसके बाद उनकी रचनाशीलता लगातार सक्रिय रही और एक के बाद एक उपन्यास प्रकाशित होते रहे, जिनमें 'आदमी का ज़हर'(1972), 'सीमाएं टूटती हैं'(1973), 'मकान'(1976), 'पहला पड़ाव'(1987), 'विस्रामपुर का संत'(1998), 'राग विराग'(2001) विशेष उल्लेखनीय हैं। बच्चों के लिए एक उपन्यास, 'बब्बर सिंह और उसके साथी' भी 1999 में प्रकाशित हुआ। इनके अलावा उनके 4 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कुछ उपन्यास अंग्रेज़ी और बांग्ला में भी अनूदित हुए। उनके व्यंग्य संग्रह, अनुवाद औ भी प्रकाशित हुए, इस तरह उन्होंने हिंदी साहित्य को अपने प्रभूत लेखन से समृद्ध किया। उनके इस अभूतपूर्व अवदान के लिए भारतसरकार ने उन्हें 2008 में पद्मभूषण से अलंकृत किया, उन्होंने व्यास सम्मान और ज्ञानपीठ पुरस्कार समेत दर्जनों पुरस्कार और सम्मान और पाठकों का स्नेह और आदर अर्जित किया। 1992 में जयपुर में जनवादी लेखक संघ के केंद्रीय सम्मेलन के वे विशिष्ट अतिथि थे, उनका अध्यक्षीय भाषण भारत भर के कोने कोने से आये लेखकों के लिए बहुत ही प्रेरणादायक था। हिंदी साहित्य ने आलोचनात्मक यथार्थवाद का एक सशक्त चितेरा खो दिया, यह क्षति अपूरणीय ही है।
जनवादी लेखक संघ उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है, और उनके परिवारजनों के प्रति अपनी हार्दिक संवेदनाएं व्यक्त करता है।

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव
चंचल चौहान, महासचिव

Wednesday, October 5, 2011

कुबेर दत्त के निधन पर

Dated 3-10-2011



जनवादी लेखक संघ हिंदी के मशहूर कवि कुबेर दत्त के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। कुबेर दत्त बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार थे, वे प्रसार भारती में विभिन्न पदों पर काम करते हुए डी डी भारती के निदेशक पद से सेवामुक्त हुए तो भी उनकी कार्यकुशालता से प्रभावित अधिकारियों ने उनकी योग्यता तथा काम की गुणवत्ता के कारण उन्हें परामर्शदाता के रूप में नियुक्त करके उनकी सेवाएं लेते रहने का फैसला लिया । वे इन दिनों भी अपनी सेवाएं डी डी भारती को दे रहे थे।
कुबेर दत्त एक कवि के रूप में भी अपनी अच्छी पहचान बना चुके थे, उनकी प्रमुख कृतियां, काल काल आपात] केरल प्रवास] कविता की रंगशाला, अंतिम शीर्षक (सभी कविता-संग्रह) , धरती ने कहा फिर (लम्बी कविताएं) हिंदी पाठकों और साहित्यकारों के बीच काफी चर्चित व प्रशंसित रहीं। जनवादी लेखक संघ के साथ उनका घनिष्ठ लगाव था, जलेस के कई यादगार प्रोग्रामों को उन्होंने सारे जोखिम उठा कर कवरेज ही नहीं दिया, बल्कि उन प्रोग्रामों को अपनी रचनाशीलता व प्रतिभा से सजा कर छ: एपीसोड के कार्यक्रमों में प्रसारित भी किया। इन प्रोग्रामों में 19 मई 2007 को 1857 पर आयाजित जलेस प्रोग्राम और 2 व 3 नवंबर 2007 को धनबाद के डिगुवाडीह में संपन्न जलेस का सातवां राष्ट्रीय सम्मेलन विशेष उल्लेखनीय हैं। वे एक लेखक तो थे ही, उनकी रुचि चित्रकला और संगीत में भी थी। उन्होंने दूरदर्शन पर साहित्य तथा ललित कलाओं के प्रति दर्शकों में रुचि पैदा करने के लिए बहुत अच्छे और स्तरीय कार्यक्रम प्रसारित किये । उन्हें इस काम के लिए हमेशा याद किया जायेगा। उन्हें अज्ञेय शिखर सम्मान और सार्क लेखक सम्मान भी मिला था। उनके निधन से रचना जगत को और संस्कृतकर्म को जो क्षति पहुंची है, वह अपूरणीय है।
जनवादी लेखक संघ उनकी जीवनसाथी श्रीमती कमलिनी दत्त व उनके परिवार के प्रति गहरी संवेदना प्रकट करता है।

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान
महासचिव, महासचिव







Dated 4-10-2011


हिंदी के मशहूर कवि कुबेर दत्त को जिनका देहावसान 2 अक्टूबर को हुआ श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक सभा का आयोजन 7 अक्टूबर शाम 4.00 बजे से साहित्य अकादमी के सभागार में किया गया है, आप से निवेदन है कि आप आयें और अपने प्रिय रचनाकार कुबेर दत्त को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करें।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान
महासचिव, महासचिव

Thursday, June 16, 2011

नया पथ के नागार्जुन विशेषांक का लोकार्पण

जनवादी लेखक संघ, सहमत, जन नाट्य मंच, और एक्ट वन के संयुक्त तत्वावधान नागार्जुन जन्मशती उत्सव का अभूतपूर्व आयोजन त्रिवेणी सभागार में 15 जून की शाम 6.00 बजे से शुरू हुआ और 9 बजे तक चलता रहा। प्रारंभ में भारी तादाद में उमड़ आये श्रोताओं का स्वागत करते हुए जलेस के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि आज के दौर के भयंकर संकट के क्षणों में जनकवि नागार्जुन का कृतित्व नये रचनाकारों के लिए प्रेरणादायी है, अंधकार में मशाल की तरह है। उसके बाद नागार्जुन की तीन कविताओं, ‘लाल भवानी’, ‘लाजवंती’, व ‘शासन की बंदूक’ को संगीतात्मक समूहगान के रूप में प्रस्तुत किया गया।
उसके बाद नया पथ के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक के लोकार्पण के साथ परिचर्चा का सत्र शुरू हुआ जिसमें प्रो. शिवकुमार मिश्र(गुजरात), राजेश जोशी (भोपाल) ने अपने विचार रखे और डा. नामवरसिंह ने अध्यक्षता की। शिवकुमार मिश्र ने नागार्जुन के जीवन संघर्षों और उनके बहुआयामी रचनाकर्म को उनकी कविताओं के अर्थ खोलते हुए पेश किया जबकि राजेश जोशी ने बाबा के मैग्नीफाइंग ग्लास और ट्रांजिस्टर का जिक्र करते हुए उनकी प्रतीकात्मकता को रेखांकित किया। अध्यक्षीय भाषण में नामवर जी ने नागार्जुन पर लिखे अपने लेखों का उल्लेख करते हुए कहा कि उन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों, वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे।
इस आयोजन की सबसे आकर्षक विशिष्टता यह थी कि नागार्जुन की कविताओं को दृश्य-श्रव्य कलारूपों के माध्यम से शास्त्रीयसंगीत गायिका अंजना पुरी और सूफी संगीत गायक मदनगोपाल सिंह ने अनोखा रूप दिया जिनकी प्रस्तुतियों पर दर्शक मुग्ध हो कर तालियो की गड़गड़ाहट से उनको दाद देते रहे। बीच बीच में नागार्जुन की कविताओं का पाठ जाने माने रचनाकारों ने किया जिनमें प्रमुख थे, जुबैर रज़वी, मैत्रेयी पुष्पा, लीलाधर मंडलोई, दिनेश कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल और अशोक तिवारी। एन एस डी के रंगकर्मी केशव के निर्देशन में ‘बिगुल’ नाट्यग्रुप ने बाबा की कविताओं का एक नाट्य-कोलाज पेश किया जिसकी सात कडि़या थीं और यह एक अनोखा प्रयोग भी था।
अंत में नागार्जुन की कविता ‘मेघ बजे’ को शास्त्रीय संगीत की बंदिश में जन नाट्य मंच(कुरुक्षेत्र) के कलाकारों ने पेश किया जिसकी काफी सराहना हुई।
आयोजन का संचालन जलेस के महासचिव, चंचल चौहान ने किया ।

भवदीय
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव जनवादी लेखक संघ
चंचल चौहान, महासचिव जनवादी लेखक संघ

Monday, June 13, 2011

नागार्जुन पर विशेषांक

जनवादी लेखक संघ
42 अशोक रोड, नयी दिल्ली-110001
फोन: 23738015
जनवादी लेखक संघ, सहमत, जन नाट्य मंच, एक्ट वन मिल कर नागार्जुन जन्मशती उत्सव 15 जून 2011 को शाम 5.30 बजे त्रिवेणी सभागार, मंडी हाउस, नयी दिल्ली में आयोजित कर रहे हैं !
इस अवसर पर नया पथ के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का लोकार्पण भी होगा !
आप मित्रों सहित इस उत्सव में शामिल हों ! निमंत्रण कार्ड संलग्न है !


निवेदक
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव, जनवादी लेखक संघ
चंचल चौहान, महासचिव, जनवादी लेखक संघ

Thursday, June 9, 2011

मक़बूल फि़दा हुसैन

प्रेस विज्ञप्ति
जनवादी लेखक संघ मशहूर चित्रकार मक़बूल फि़दा हुसैन के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। हुसैन साहब दुनिया के चोटी के कलाकारों में गिने जाते थे। जीवन भर शिशुवत मासूमियत के साथ अपने कलाकर्म में जुटे इस महान कलाकार ने चित्रकला को एक नया आयाम दिया और हमारे देश की साझा संस्कृति को समृद्ध करने में जो योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह दुखद ही है कि इस महान कलाकार को, हिंदू सांप्रदायिक ताक़तों ने सैकड़ों मुकदमें दायर करके़, इतना परेशान किया कि उन्हें अपना प्यारा वतन छोड़ कर निर्वासन का दर्द झेलना पड़ा और एक अन्य देश की नागरिकता लेनी पड़ी। सत्ताधारी कांग्रेस की गठबंधन सरकार ने भी इस कलाकार को सम्मानजनक तरीके़ से वतन वापस लाने की कभी कोशिश नहीं की।
जनवादी लेखक संघ मक़बूल फि़दा हुसैन के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और उनके परिवारजनों व मित्रों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करता है।


भवदीय
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव
चंचल चौहान, महासचिव

Tuesday, May 24, 2011

श्रद्धांजलि

जनवादी लेखक संघ

केंद्रीय कार्यालय

42 अशोक रोड, नयी दिल्ली-110001

फोन: 23738015, मेल: jlscentre @ yahoo.com

Website: www.jlsindia.org

Dated 25-5 2011

प्रिय रचनाकार साथी

आप को सूचना मिली होगी कि हिंदी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक चंद्रबली सिंह का 23 मई को सुबह 8.30 बजे वाराणसी के त्रिमूर्ति अस्पताल में देहावसान हो गया।

उन्हे श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक सभा का आयोजन साहित्य अकादमी के तीसरे तल के सभागार में सोमवार 30 मई 2011 को शाम 5.00 बजे होगा

आपसे अनुरोध है कि आप इस श्रद्धांजलि सभा में शिरकत करें

भवदीय

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव

चंचल चौहान, महासचिव

Monday, May 23, 2011

चंद्रबली सिंह नहीं रहे

नयी दिल्ली_२३ मई : जनवादी लेखक संघ हिंदी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक चंद्रबली सिंह के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक व्यक्त करता है। वे दो दिन पहले ही अचानक बीमार हुए और वाराणसी के त्रिमूर्ति अस्पताल में आज उनका देहावसान हो गया।

चंद्रबली सिंह का जन्म 20 अप्रैल 1924 को गाजीपुर जिले के रानीपुर गांव में जो कि उनकी ननिहाल था हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी में हुई और फिर बी एम (अंग्रेजी, 1944) इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। उसके बाद वे बलवंत राजपूत कालेज आगरा में और बाद में वाराणसी के ही उदयप्रताप कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे, 1984 में सेवामुक्त हो कर लेखन और संगठनात्मक कार्य में सक्रिय भागीदारी करने लगे।

1982 में जनवादी लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में भैरव प्रसाद गुप्त अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे और चंद्रबली सिंह महासचिव। बाद में वे उसके अध्यक्ष हो गये थे।

आलोचना की उनकी दो पुस्तकें, लोकदृष्टि और हिंदी साहित्य और आलोचना का जनपक्ष काफी सराही गयीं। वे वाराणसी से प्रकाशित अखबार आज के रविवारीय संस्करण में साहित्यिक कालम में दस साल तक लेखन करते रहे, इसके अलावा हंस, पारिजात, नयी चेतना, नया पथ, स्वाधीनता आदि अपने समय की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार लेखन करते रहे। एक अनुवादक के रूप में भी उनके काम की बहुत सराहना हुई उनके द्वारा पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया, नाजिम हिकमत की कविताओं का अनुवाद, हाथ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन की चुनी हुई कविताओं के अनुवाद संचयन सीरीज में वाणी प्रकाशन ने छापे। इसके अलावा उन्होंने ब्रेख्त, मायकोव्स्की, आदि की हज़ारों पृष्ठों में फैली हुई कविताओं के हिंदी रूपांतर किये थे, दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश अप्रकाशित हैं। इसके अलावा नागरी प्रचारिणीसभा के विश्वकोश की अंग्रेजी साहित्य से संबंधित सभी प्रविष्टियां चंद्रबली सिंह ने ही लिखी थीं।

वे युवा काल में ही कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गये थे। पार्टी के विभाजन के बाद वे मार्क्सवादी पार्टी के साथ रहे और जीवन भर अपनी प्रतिबद्धता से विचलित नहीं हुए। अपनी वैचारिक दृढ़ता और भारत के शोषित जनगण के सघर्षों के प्रति अडिग लगाव के कारण वे हमारे प्रेरणा स्रोत थे, उनके देहावसान से जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन को एक नुकसान जरूर हुआ है। हम उनके शोकसंतप्त परिवार और मित्रजनों के प्रति अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं।

मुरली मनोहर प्रसाद सिह, महासचिव

चंचल चौहान महासचिव

Monday, April 11, 2011

अण्णा हजारे का आंदोलन

अण्णा हजारे का आंदोलन नयी दिल्ली : 9 अप्रैल ’11 : सामाजिक कार्यकत्‍र्ता अण्णा हजारे ने आज अपना चार दिन पुराना अनशन तोड़ दिया। मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल विधेयक का प्रारूप तैयार करने संबंधी उनकी मांगें मान ली। अण्णा हजारे के इस अनशन को सारे देश में व्यापक जन समर्थन मिल रहा था और रोज़ाना इस जनसमर्थन में बढ़ोतरी ही हो रही थी। देश में भ्रष्टाचार आज एक ज्वलंत मुद्दा बन चुका है। पिछले कुछ समय से ऐसी बहुत सी घटनाएं घटीं जिसने सरकारों के प्रति जनता के विश्वास को हिला दिया था। 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ गेम्स ने जहां इस सच्चाई को उजागर किया कि सरकार में बैठे मंत्री, राजनेता और नौकरशाह कायदे-कानूनों की पूरी तरह अनदेखी कर अपने चहेतों को अरबों रुपये का लाभ पहुंचा रहे हैं और इस तरह जो पैसा जनता के हित में काम आ सकता था, वह धन्नासेठों, राजनेताओं और नौकरशाहों की जेबों में जा रहा है। भ्रष्टाचार के इस दलदल में सिर्फ केंद्र सरकार ही लिप्त नज़र नहीं आ रही थी वरन कई राज्य सरकारें भी इसमें आकंठ डूबी दिखायी दे रही थीं। नीरा राडिया के टेपों और विकिलिक्स के केबलों ने रही-सही कसर पूरी कर दी थी। जनता को ऐसा प्रतीत होने लगा था कि देश में सिर्फ एक ही कानून चल रहा है- खाओ, खिलाओ और खाने दो। भ्रष्टाचार के इन जगजाहिर किस्सों के बावजूद लोगों को यह विश्वास नहीं है कि अपराधियों को सजा मिल पायेगी। कानूनी दाव-पेंचों में ऐसे अपराधों पर फैसले आने में दसियों साल लग जाते हैं और अंत में लगभग सभी बड़े अपराधी छूट भी जाते हैं। ऐसे में एक सख्त कानून और हर स्तर पर पारदर्शिता की मांग बढ़ती जा रही थी। लगभग चार दशकों से ठंडे बस्ते में पड़े लोकपाल विधेयक को कानून बनाने के साथ-साथ उसे अधिकाधिक कारगर बनाने की भी मांग जोर पकड़ने लगी और इसी का नतीजा थी, अण्णा हजारे की भूख हड़ताल। अण्णा हजारे इससे पहले भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर महाराष्ट्र स्तर पर संघर्षों की अगुवाई कर चुके हैं। गांधीवादी होने के साथ-साथ उनकी एक साफ सुथरी, राजनीति से दूर रहने वाले जननेता की छवि भी बनी हुई है। इस छवि को बनाने में निश्चय ही मीडिया की बड़ी भूमिका है। जैसा होता है ऐसे जनआंदोलनों के साथ-साथ कई तरह के संगठन, समूह और लोग जुड़ जाते हैं। वे सभी, आवश्यक नहीं, उतने ही साफ-सुथरे और नेक इरादे वाले हों। लोकप्रियता की इस नाव में बैठकर अपनी छवि बनाने से लेकर भविष्य में इसका राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाओं से प्रेरित होकर भी लोग जुटे हैं। लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जनता का व्यापक जनसमर्थन उन परिस्थितियों से उत्पन्न चिंताओं से ही संभव हुआ है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। इस जनसमर्थन को कम कर के नहीं आंका जाना चाहिए। अब जब अण्णा हजारे का अनशन समाप्त हो गया है, इस आंदोलन से सामने आयी कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियों पर भी चर्चा की जानी चाहिए। जिस तरह मध्यवर्गीय सर्वनिषेधवादी विचारधारा के असर में समूची राजनीति, सारे राजनेताओं और सारे राजनीतिक संगठनों को इस दौरान गरियाया गया, वह शुभ संकेत नहीं है। राजनीति मात्र के प्रति बढ़ती हिकारत की भावना लोकतंत्र के लिए हर देश में और समय में खतरनाक साबित हुई है क्योंकि ऐसी सोच तानाशाही के लिए जमीन तैयार करती है और तानाशाही मौजूदा लोकतंत्र के मुकाबले एक खतरनाक व्यवस्था होगी, एमर्जैंसी की याद हमें नहीं भूलना चाहिए। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को पीछे धकेलकर प्रारूप बनाने में उन कुछ व्यक्तियों को शामिल कर लिया गया जिनकी किसी के प्रति कोई जबाबदेही नहीं है और न ही वे किसी का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरी प्रवृत्ति भ्रष्टाचार के लिए सिर्फ राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को निशाने पर रखना और उन उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और देशी-विदेशी निगमों को जो भ्रष्टाचार के प्रेरक हैं, उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया है। 2जी स्पैक्ट्रम में लिप्त मंत्री और नौकरशाहों ने तो सिर्फ अपना कमीशन ही पाया है, जनता के धन की लूट का अधिकांश हिस्सा तो धन्नासेठों की जेबों में ही गया है जो राजनेताओं और नौकरशाहों की खरीद-फरोख्त अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। दरअसल, लूट-खसोट पर टिकी कोई व्यवस्था भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकती। भ्रष्टाचार तो इस अमानुषिक व्यवस्था से उपजा रोग है। इसका इलाज भी जरूरी है लेकिन जनता के कष्ट इससे ही दूर नहीं होंगे। लोकतंत्र में कोई भी पद इतना ताकतवर नहीं होना चाहिए कि वह खुद अजेय शक्ति का केंद्र बन जाये। यह सही है कि लोकपाल पद राजनीतिक और नौकरशाही दबावों से मुक्त होना चाहिए लेकिन इसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जनता के प्रति लोकपाल भी जबाबदेह हो। लोकतंत्र में जनता का प्रतिनिधित्व वे विधायिकाएं (संसद और विधानसभाएं) करती हैं जिनमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। फिलहाल इसका कोई विकल्प नहीं है। हां, जैसाकि अण्णा हजारे ने अनशन समाप्ति के बाद कहा था, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाना, सत्ता का विकेंद्रीकरण और चुनाव संहिताओं में और अधिक सुधार भविष्य के एजेंडे हो सकते हैं। केवल लोकपाल सभी समस्याओं का हल नहीं है।

Tuesday, April 5, 2011

देवीशंकर अवस्थी आलोचना पुरस्कार

युवा आलोचक संजीव कुमार सम्मानित

नयी दिल्ली : 6 अप्रैल : हिंदी के युवा आलोचक और नया पथ की संपादकीय टीम के सक्रिय सदस्य संजीव कुमार को कल इस वर्ष के देवीशंकर अवस्थी आलोचना पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी के खचाखच भरे हाल में वरिष्ठ कवि कुंवरनारायण से ले कर युवतर कवियों और आलोचकों की उपस्थिति में संजीवकुमार ने पुरस्कार प्राप्ति के अवसर पर अपने हास परिहास भरे भाषण में अपनी प्रतिभा का पूरा परिचय दिया। वे जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और हमारे संपादकमंडल के एक सक्रिय सदस्य हैं, उनमें अपनी विचारधारात्मक दृढ़ता, रचनात्मक क्षमता और साहित्यिक संवेदनशीलता व आलोचनात्मक विवेक ऐसे स्तर का है जो किसी को भी प्रभावित किये बग़ैर नहीं रह सकता, उनकी विचारधारा के विरोधी भी उनसे प्रभावित होते हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता अशोक वाजपेयी ने की, मंच पर विश्वनाथ त्रिपाठी भी बैठे थे जिनका इस अवसर पर शाल ओढ़ा कर विशेष सम्मान किया गया, 92 वर्षीय दिल्ली विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त हिंदी के प्रोफेसर सत्यदेव चौधरी ने देवीशंकर अवस्थी के साथ हिंदी विभाग में बिताये दिनों और उनके देहावसान के समय का जीवंत चित्रण किया। कार्यक्रम का संचालन जाने माने पत्रकार रवींद्र त्रिपाठी कर रहे थे।

Friday, April 1, 2011

कमला प्रसाद को श्रद्धांजलि

नयी दिल्ली : १ अप्रैल, कल २ अप्रैल को शाम साहित्य अकादमी के हाल में पिछले दिनों दिवंगत हुए प्रलेस के महासचिव डा0 कमला प्रसाद को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक सभा का आयोजन किया जा रहा है, इसमें शरीक होने के लिए जनवादी लेखक संघ ने सभी लेखकों से निवेदन किया है। डॉ0 कमला प्रसाद हिंदी की प्रगतिशील परंपरा के महत्वपूर्ण और सुप्रसिद्ध आलोचक थे। कमला प्रसाद ने आलोचना के अलावा अपनी अकादमिक दक्षता व संपादन कुशलता और संगठनात्मक क्षमता का जो परिचय हिंदी जगत को दिया है वह अदभुत ही कहा जा सकता है। उनकी रचनाएं साहित्यशास्त्र छायावाद-प्रकृति और प्रयोग छायावादोत्तर काव्य की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि दरअसल साहित्य और विचारधारा रचना और आलोचना की द्वंद्वात्मकता आधुनिक हिंदी कविता और आलोचना की द्वंद्वात्‍मकता समकालीन हिंदी निबंध मध्ययुगीन रचना और मूल्य कविता तीरे आलोचक और आलोचना आदि से उनकी लेखकीय प्रतिभा का हमें आभास होता है। कहना न होगा कि एक प्रतिबद्ध रचनाकार और मानवीय मूल्यों के प्रति सजग प्रहरी के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा व आदर हर जगह हासिल था। उन्होंने अवधेश प्रताप विश्वविद्यालय रीवां में पहले प्राध्यापक और बाद में अध्यक्ष के रूप में काम किया तथा अकादमिक क्षेत्र में भी अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया। वहां उन्होंने अंतर्भारती जैसे बहुकला केंद्र की नींव रखी। उनके कुशल संयोजन एवं संपादन में वसुधा जो अब प्रगतिशील वसुधा के नाम से निकल रही है साहित्य की पत्रिका के रूप में एक स्थान बना चुकी है। इसका संपादन उन्होंने अपने हाथ में नब्बे के दशक से लिया हुआ था। वे सेवानिवृत्त होकर मध्यप्रदेश कला परिषद् के निदेशक भी रहे और फिर कुछ दिनों तक केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष। दर्जनों सरकारी-गैरसरकारी कमेटियों व विश्विवद्यालयों की कार्यपरिषदों आदि में वे सदस्य रहे। 14 फरवरी 1938 को मध्यप्रदेश के सतना जिले में धौरहरा गांव के एक ग़रीब किसान परिवार में कमला प्रसाद का जन्म हुआ था। उन्होंने एक जगह लिखा है कि मेरा स्वयं का जीवन शोषण को बहुत करीब से देख चुका था। परसाई जी की बातों ने मुझे प्रतिबद्धता और पक्षधरता का पाठ प़ढाया। मार्क्स और मार्क्सवादी साहित्य में रुचि ब़ढी। इस तरह कमला प्रसाद जी ने अपना जीवन संगठन व साहित्य को समर्पित कर दिया तथा अर्थवान जीवन जी कर हम से विदा हुए।

Friday, March 25, 2011

प्रेस विज्ञप्ति

जनवादी लेखक संघ हिंदी के जाने माने रचनाकार और प्रलेस के महासचिव प्रो0 कमला प्रसाद के आकस्मिक निधन पर गहरा शोक प्रकट करता है। वे पिछले काफी दिनों से बीमार थे। उन्हें हाल ही में नयी दिल्ली के आल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में भरती कराया गया था। मगर आज उनका देहांत हो गया। उनका पार्थिव शरीर सीपीआइ के केंद्रीय कार्यालय अजय भवन लाया गया जहां दिल्ली और बाहर के भी बहुत सारे लेखक उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जमा हुए थे। उनका शरीर छह बजे शाम भोपाल ले जाया जायेगा जहां उनकी अंत्येष्टि होगी। जनवादी लेखक संघ की ओर से दोनों महासचिवों मुरली मनोहर प्रसाद सिंह व चंचल चौहान और केद्र सचिव रेखा अवस्थी ने पुष्पमाल अर्पित करके कमला प्रसाद के प्रति अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की । जनवादी लेखक संघ प्रलेस के साथ ही 2 अप्रैल को नयी दिल्ली में आयोजित होने वाली शोक सभा में शिरकत करेगा।
डॉ0 कमला प्रसाद हिंदी की प्रगतिशील परंपरा के महत्वपूर्ण और सुप्रसिद्ध आलोचक थे। कमला प्रसाद ने आलोचना के अलावा अपनी अकादमिक दक्षता व संपादन कुशलता और संगठनात्मक क्षमता का जो परिचय हिंदी जगत को दिया है वह अदभुत ही कहा जा सकता है। उनकी रचनाएं साहित्यशास्त्र छायावाद-प्रकृति और प्रयोग छायावादोत्तर काव्य की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि दरअसल साहित्य और विचारधारा रचना और आलोचना की द्वंद्वात्मकता आधुनिक हिंदी कविता और आलोचना की द्वंद्वात्‍मकता समकालीन हिंदी निबंध मध्ययुगीन रचना और मूल्य कविता तीरे आलोचक और आलोचना आदि से उनकी लेखकीय प्रतिभा का हमें आभास होता है। कहना न होगा कि एक प्रतिबद्ध रचनाकार और मानवीय मूल्यों के प्रति सजग प्रहरी के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा व आदर हर जगह हासिल था।

उन्होंने अवधेश प्रताप विश्वविद्यालय रीवां में पहले प्राध्यापक और बाद में अध्यक्ष के रूप में काम किया तथा अकादमिक क्षेत्र में भी अपनी विद्वत्ता का परिचय दिया। वहां उन्होंने अंतर्भारती जैसे बहुकला केंद्र की नींव रखी।
उनके कुशल संयोजन एवं संपादन में वसुधा जो अब प्रगतिशील वसुधा के नाम से निकल रही है साहित्य की पत्रिका के रूप में एक स्थान बना चुकी है। इसका संपादन उन्होंने अपने हाथ में नब्बे के दशक से लिया हुआ था। वे सेवानिवृत्त होकर मध्यप्रदेश कला परिषद् के निदेशक भी रहे और फिर कुछ दिनों तक केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष। दर्जनों सरकारी-गैरसरकारी कमेटियों व विश्विवद्यालयों की कार्यपरिषदों आदि में वे सदस्य रहे।
14 फरवरी 1938 को मध्यप्रदेश के सतना जिले में धौरहरा गांव के एक ग़रीब किसान परिवार में कमला प्रसाद का जन्म हुआ था। उन्होंने एक जगह लिखा है कि मेरा स्वयं का जीवन शोषण को बहुत करीब से देख चुका था। परसाई जी की बातों ने मुझे प्रतिबद्धता और पक्षधरता का पाठ प़ढाया। मार्क्स और मार्क्सवादी साहित्य में रुचि ब़ढी। इस तरह कमला प्रसाद जी ने अपना जीवन संगठन व साहित्य को समर्पित कर दिया तथा अर्थवान जीवन जी कर हम से विदा हुए।
जनवादी लेखक संघ इस कर्मठ व प्रतिबद्ध रचनाकार को अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता है व उनके परिवारजनों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करता है।

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, महासचिव
चंचल चौहान, महासचिव