Monday, April 11, 2011

अण्णा हजारे का आंदोलन

अण्णा हजारे का आंदोलन नयी दिल्ली : 9 अप्रैल ’11 : सामाजिक कार्यकत्‍र्ता अण्णा हजारे ने आज अपना चार दिन पुराना अनशन तोड़ दिया। मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल विधेयक का प्रारूप तैयार करने संबंधी उनकी मांगें मान ली। अण्णा हजारे के इस अनशन को सारे देश में व्यापक जन समर्थन मिल रहा था और रोज़ाना इस जनसमर्थन में बढ़ोतरी ही हो रही थी। देश में भ्रष्टाचार आज एक ज्वलंत मुद्दा बन चुका है। पिछले कुछ समय से ऐसी बहुत सी घटनाएं घटीं जिसने सरकारों के प्रति जनता के विश्वास को हिला दिया था। 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ गेम्स ने जहां इस सच्चाई को उजागर किया कि सरकार में बैठे मंत्री, राजनेता और नौकरशाह कायदे-कानूनों की पूरी तरह अनदेखी कर अपने चहेतों को अरबों रुपये का लाभ पहुंचा रहे हैं और इस तरह जो पैसा जनता के हित में काम आ सकता था, वह धन्नासेठों, राजनेताओं और नौकरशाहों की जेबों में जा रहा है। भ्रष्टाचार के इस दलदल में सिर्फ केंद्र सरकार ही लिप्त नज़र नहीं आ रही थी वरन कई राज्य सरकारें भी इसमें आकंठ डूबी दिखायी दे रही थीं। नीरा राडिया के टेपों और विकिलिक्स के केबलों ने रही-सही कसर पूरी कर दी थी। जनता को ऐसा प्रतीत होने लगा था कि देश में सिर्फ एक ही कानून चल रहा है- खाओ, खिलाओ और खाने दो। भ्रष्टाचार के इन जगजाहिर किस्सों के बावजूद लोगों को यह विश्वास नहीं है कि अपराधियों को सजा मिल पायेगी। कानूनी दाव-पेंचों में ऐसे अपराधों पर फैसले आने में दसियों साल लग जाते हैं और अंत में लगभग सभी बड़े अपराधी छूट भी जाते हैं। ऐसे में एक सख्त कानून और हर स्तर पर पारदर्शिता की मांग बढ़ती जा रही थी। लगभग चार दशकों से ठंडे बस्ते में पड़े लोकपाल विधेयक को कानून बनाने के साथ-साथ उसे अधिकाधिक कारगर बनाने की भी मांग जोर पकड़ने लगी और इसी का नतीजा थी, अण्णा हजारे की भूख हड़ताल। अण्णा हजारे इससे पहले भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर महाराष्ट्र स्तर पर संघर्षों की अगुवाई कर चुके हैं। गांधीवादी होने के साथ-साथ उनकी एक साफ सुथरी, राजनीति से दूर रहने वाले जननेता की छवि भी बनी हुई है। इस छवि को बनाने में निश्चय ही मीडिया की बड़ी भूमिका है। जैसा होता है ऐसे जनआंदोलनों के साथ-साथ कई तरह के संगठन, समूह और लोग जुड़ जाते हैं। वे सभी, आवश्यक नहीं, उतने ही साफ-सुथरे और नेक इरादे वाले हों। लोकप्रियता की इस नाव में बैठकर अपनी छवि बनाने से लेकर भविष्य में इसका राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाओं से प्रेरित होकर भी लोग जुटे हैं। लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जनता का व्यापक जनसमर्थन उन परिस्थितियों से उत्पन्न चिंताओं से ही संभव हुआ है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। इस जनसमर्थन को कम कर के नहीं आंका जाना चाहिए। अब जब अण्णा हजारे का अनशन समाप्त हो गया है, इस आंदोलन से सामने आयी कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियों पर भी चर्चा की जानी चाहिए। जिस तरह मध्यवर्गीय सर्वनिषेधवादी विचारधारा के असर में समूची राजनीति, सारे राजनेताओं और सारे राजनीतिक संगठनों को इस दौरान गरियाया गया, वह शुभ संकेत नहीं है। राजनीति मात्र के प्रति बढ़ती हिकारत की भावना लोकतंत्र के लिए हर देश में और समय में खतरनाक साबित हुई है क्योंकि ऐसी सोच तानाशाही के लिए जमीन तैयार करती है और तानाशाही मौजूदा लोकतंत्र के मुकाबले एक खतरनाक व्यवस्था होगी, एमर्जैंसी की याद हमें नहीं भूलना चाहिए। इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों को पीछे धकेलकर प्रारूप बनाने में उन कुछ व्यक्तियों को शामिल कर लिया गया जिनकी किसी के प्रति कोई जबाबदेही नहीं है और न ही वे किसी का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरी प्रवृत्ति भ्रष्टाचार के लिए सिर्फ राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को निशाने पर रखना और उन उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और देशी-विदेशी निगमों को जो भ्रष्टाचार के प्रेरक हैं, उन्हें पूरी तरह भुला दिया गया है। 2जी स्पैक्ट्रम में लिप्त मंत्री और नौकरशाहों ने तो सिर्फ अपना कमीशन ही पाया है, जनता के धन की लूट का अधिकांश हिस्सा तो धन्नासेठों की जेबों में ही गया है जो राजनेताओं और नौकरशाहों की खरीद-फरोख्त अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। दरअसल, लूट-खसोट पर टिकी कोई व्यवस्था भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकती। भ्रष्टाचार तो इस अमानुषिक व्यवस्था से उपजा रोग है। इसका इलाज भी जरूरी है लेकिन जनता के कष्ट इससे ही दूर नहीं होंगे। लोकतंत्र में कोई भी पद इतना ताकतवर नहीं होना चाहिए कि वह खुद अजेय शक्ति का केंद्र बन जाये। यह सही है कि लोकपाल पद राजनीतिक और नौकरशाही दबावों से मुक्त होना चाहिए लेकिन इसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जनता के प्रति लोकपाल भी जबाबदेह हो। लोकतंत्र में जनता का प्रतिनिधित्व वे विधायिकाएं (संसद और विधानसभाएं) करती हैं जिनमें जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। फिलहाल इसका कोई विकल्प नहीं है। हां, जैसाकि अण्णा हजारे ने अनशन समाप्ति के बाद कहा था, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाना, सत्ता का विकेंद्रीकरण और चुनाव संहिताओं में और अधिक सुधार भविष्य के एजेंडे हो सकते हैं। केवल लोकपाल सभी समस्याओं का हल नहीं है।

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