दिनांक 8.11.2011 को दिल्ली के साहित्य अकादमी सभागार में जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच तथा राजकमल प्रकाशन के संयुक्त तत्वावधान में श्रीलाल शुक्ल को याद करने के लिए एक सभा आयोजित हुई। सौ से अधिक की संख्या में शहर के महत्वपूर्ण लेखकों एवं संस्कृतिकर्मियों ने इस सभा में भागीदारी की और लगभग पच्चीस लोगों ने पांच से दस मिनट के अपने-अपने वक्तव्य में श्रीलाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की ख़ासियतों को रेखांकित किया। बोलने वालों में नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, कृष्ण कल्पित, मंगलेश डबराल, मृदुला गर्ग, पुरुषोत्तम अग्रवाल, संतोष भारतीय, प्रेम जनमेजय, ज़ुबैर रज़वी, राजेंद्र यादव, भगवान सिंह, शेरजंग गर्ग, रेवती रमण, अली जावेद, दुर्गा प्रसाद गुप्त, अशोक माहेश्वरी, कुंवर नारायण , मदन कश्यप, देवशंकर नवीन, हिमांशु जोशी, भारत भारद्वाज, प्रेमपाल शर्मा, रेखा अवस्थी और आशुतोष कुमार शामिल थे। सभा का संचालन करते हुए मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने भी अपनी बातें रखीं।
नामवर सिंह ने कहा कि श्रीलाल जी किसी भी लेखक संगठन के सदस्य नहीं थे, इसके बावजूद लेखक संगठनों ने उन पर कार्यक्रम किया, यह बात ग़ौर करने की है। वामपंथी लेखक संगठनों को इसी तरह संकीर्णताओं से मुक्त होकर काम करना चाहिए, जैसा कि खुद श्रीलाल जी का व्यक्तित्व था। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने बताया कि उनके रचनात्मक साहित्य और उसमें भी ‘रागदरबारी’ की चर्चा करके लोग रह जाते हैं, जबकि इस बात का भी उल्लेख होना चाहिए कि वे संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और फ्रेंच भाषाओं के बहुत अच्छे ज्ञाता थे। विश्व साहित्य के नवीनतम रुझानों से वे वाकि़फ़ रहते थे। विश्वनाथ त्रिपाठी ने श्रीलाल जी को व्यंग्य उपन्यास की विधा की शुरुआत करने का श्रेय दिया तो भगवान सिंह ने ‘मकान’ को उनकी सर्वोत्कृष्ट रचना बताया। राजेंद्र यादव ने श्रीलाल जी को याद करते हुए इस चीज़ पर टिप्पणी करना ज़रूरी समझा कि पुरस्कार उस उम्र में मिलने चाहिए जब लेखक को अधिक लिखने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत हो। सामान्यत: बड़े पुरस्कार ऐसी उम्र में आकर मिलते हैं जब उसकी राशि या तो अस्पताल के लिए या अंतिम क्रियाकर्म के लिए इस्तेमाल की जाती है। उन्होंने अण्णा हज़ारे के आंदोलन के संदर्भ में ‘रागदरबारी’ को याद किये जाने पर बल दिया। रेखा अवस्थी ने कहा कि बाबा नागार्जुन और श्रीलाल शुक्ल को एक साथ रख कर देखा जाना चाहिए। उन्होंने इस चीज़ पर अफ़सोस जताया कि 2001 में प्रकाशित ‘रागविराग’ अपनी विषयवस्तु और ट्रीटमेंट में जितना प्रासंगिक और अद्भुत है, उसके अनुरूप उस पर चर्चा नहीं हुई। अन्य सभी वक्ताओं ने भी अपने-अपने वक्तव्य में महत्वपूर्ण बिंदुओं को उभारा।
दो घंटे चली इस श्रद्धांजलि सभा का समापन श्रीलाल जी के प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने वाले प्रस्ताव और दो मिनट के मौन के साथ हुई।
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